साहित्य ऋषि लक्ष्मीनारायण रंगा की देह पंचतत्व में विलीन
बस जितना रच पाऊंगा
उतना ही बच पाऊंगा…
बीकानेर। साहित्य, रंगकर्म, संगीत, नृत्य एवं शिक्षा को समर्पित वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मीनारायण रंगा का निधन गुरुवार को हो गया। शुक्रवार को उनका अंतिम संस्कार उनके पैतृक शमशान स्थल चतोलाई में हुआ। रंगा को मुखाग्नि उनके पुत्र कमल रंगा, राजेश रंगा एवं पौत्र पुनीत, सुमित, अंकित एवं आशीष रंगा ने दी। 89 वर्षीय रंगा के निधन की खबर से साहित्य जगत में शोक छाया हुआ है। साहित्य ऋषि कहे जाने वाले लक्ष्मीनारायण रंगा ने अनेकों साहित्य रचकर देशभर में बीकानेर को साहित्य की छोटी काशी बना दिया।
साहित्य सृजन के साथ साहित्य की रचने के लिए पीढिय़ां तैयार करने का अनूठा कार्य रंगा ने ही किया। लक्ष्मीनारायण रंगा ने नाटक, उपन्यास, कहानी, कविता, रिपोर्ताज, फिल्म, धारावाहिक लेखन किया। इनका लिखा नाटक अमर शहीद दसवीं के पाठ्यक्रम में लंबे समय तक राजस्थान के विद्यार्थियों को प्रेरित करता रहा। लक्ष्मी नारायण रंगा को साहित्य अकादेमी का प्रतिष्ठित भाषा पुरस्कार उनके राजस्थानी नाटक ‘पूर्णमिदमÓ के लिए अर्पित किया गया। बड़े पुत्र कमल रंगा राजस्थानी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकार हैं तथा छोटे पुत्र राजेश रंगा नालंदा पब्लिक स्कूल के संचालक हैं।
बस जितना रच पाऊंगा, उतना ही बच पाऊंगा… विख्यात साहित्यकार लक्ष्मीनारायण रंगा ने उक्त पंक्तियों को वास्तव में जीया है। जीवन का अंतिम समय करीब एक वर्ष शायद वे लेखन से दूर रहे होंगे, बाकी तो ऐसा कोई दिन या समय नहीं बीता होगा जब वे अपनी लेखनी को छोड़ पाए होंगे। साहित्यकारों की शान कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। ८९ वर्षीय लक्ष्मीनारायण रंगा ने कभी उम्र को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। मन से युवा और भाव भी ऊर्जावान रखने वाले रंगा लघु कथाओं, साहित्य, कविता, राजस्थानी आदि अनेक विधाओं में सिद्धहस्त थे। बड़े सर नाम से नालन्दा में हजारों बच्चों के चहेते और आदरणीय लक्ष्मीनारायण रंगा अपनी ड्यूटी के प्रति सजग रहते। जीवनचर्या में भी समय के पाबंद और हर कार्य को बारीकी से पूरा करते। अब साहित्यकार लक्ष्मीनारायण रंगा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन दावा है यह उनके द्वारा रचित यह पंक्तियां अमर रहेंगी-
बीकानेर की संस्कृति, सबका सांझा सीर।
दाऊजी मेरे देवता,नौगजा मेरे पीर।