मानवता के मसीहा आचार्य श्री तुलसी : डॉ. समणी मंजुप्रज्ञा
भारतीय संस्कृति ऋषि-मुनियों की संस्कृति है, जिन्होंने अपने त्याग और तपस्या युक्त जीवन से इस संस्कृति को उज्जवलतम रूप दिया। आचार्य तुलसी इसी परम्परा के तेजस्वी, ओजस्वी, यशस्वी महासूर्य थे। अपने जीवनकाल के सुंदर पलों को मानवता के नाम समर्पित किया। राजस्थान के छोटे से शहर लाडनूं में जन्म लिया और बीकानेर जिले के गंगाशहर में महाप्रयाण कर देह से विदेह बने।
आचार्य तुलसी पवित्रता के पुंज थे। जिनसे स्फुरित किरणों ने देश, राष्ट्र, समाज और परिवार पर आच्छादित तमस् को दूर कर अभ्युत्थान का नव-प्रभात लाया। वे एक धार्मिक संत थे, पर उनका बहुआयामी जीवन में सामाजिक स्वस्थता का पुट था, यद्यपि वे श्वेत वस्त्रधारी मुनि थे, पर उनका व्यक्तित्व भारतीय मूल्यपरक श्रद्धा, सेवा, समर्पण, सहिष्णुता, साधना, सौम्यता, श्रमशीलता आदि तथ्यों से निर्मित था।
आचार्य तुलसी वक्त की आवाज थे। समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करके एक नये खुले आकाश को अवतरित किया। नारी सुधारक बनकर मृत्युप्रथा, पर्दाप्रथा, दहेजप्रथा पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि परिवार की गाड़ी का एक पहिया पुरूष है तो दूसरा पहिया स्त्री है। इन दोनों में जब सन्तुलन होगा, तभी विकास की यात्रा होगी। ‘दुल्हन ही दहेज है, और शिक्षित लड़की घर की शान है’ की उद्घोषणा कर नारी-अनपढ़ता को दूर किया। परिणामत: समाज की लड़कियां ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नये रिकॉर्ड स्थापित कर रही है।
आचार्य तुलसी नैतिकता के पुजारी थे। उन्होंने धर्म का नया संस्करण प्रस्तुत करके उस धर्म को नैतिकता से परिभाषित किया। जब तक धर्म की पंक्तियां जीवन व्यवहार में नहीं उतरती हैं, तब तक वह जीवित नहीं होती। नीति-न्याय से अर्जित धन आगे चलकर शतगणित होकर पल्लवित होता है। अपने इस उद्देशय को फलवान बनाने के लिए अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन करके वे अणुव्रत अनुशास्ता बनें। छोटे-छोटे व्रत मिलकर कामयाबियों का एक बहुत बड़ा महल बन सकता है। उन्होंने अपने अणुव्रत यात्रा का प्रारम्भ मानव सुधार से किया और बताया कि सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से राष्ट्र स्वयं सुधरेगा। एक नया मानव ही नये विश्व की संरचना कर सकता है। इस अणुव्रत आन्दोलन ने वर्ण, जाति, रंग और सम्प्रदाय की विभेदता को दूर करके मानवीयता का बोध पाठ बताया।
उन्होंने समाज के एक-एक वर्ग राजनेता, व्यापारी, शिक्षक, छात्र आदि के लिए वर्गीय नियम बनाकर उन सभी को प्रेरित किया। इसके लिए राष्ट्रपति भवन से लेकर गरीब की झोंपड़ी में जाकर नैतिकता की अलख जगाई। देश में जाति-विषमता को मिटाने के लिए ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाईÓ का संदेश दिया। यही कारण था कि उनके प्रवचन केवल मानव जाति के उत्थान के लिए होते थे। देश को नशा मुक्त करने के लिए अणुव्रत को समर्पित किया और गूंज दी- अणुव्रतों का यह संदेश, व्यसन मुक्त हो सारा देश। अणुव्रतों का यह उद्घोष देखो अपने अपने दोष। गुरू तुलसी का यह संदेश नैतिक बने हमारा देश।
उन्होंने अपने दूरदर्शी दृष्टि से देखा कि हमारे बच्चे हमारे भविष्य हैं यदि उनके जीवन को संस्कारों से संस्कारित और संशोधित नहीं किया जायेगा तो वे मानव बनने की अपेक्षा दानव बन जायेंगे। बच्चा का जीवन एक नवजात पौधे के सदृश है, जिसमें नैतिकता, सदाचार, भाईचारे के खाद की जरूरत है। इसी उद्देश्य को फलीभूत करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में जीवन-विज्ञान का अवदान दिया। जीवन-विज्ञान सही अर्थ में जीवन जीने की कला प्रस्तुत करता है। निश्चित रूप से इस सांचे में ढला हुआ बच्चा समाज सार्थक रूप बनेगा।
तनाव की समस्या एक अहम् समस्या बन रही है। तनाव ग्रसित मानस कभी भी बुलन्दियों को नहीं छू सकता है। इसने व्यक्ति के सूरत और सीरत को इतना दूषित कर दिया कि सुनहरे भविष्य के ख्वाबों को साकार नहीं कर सकता। आचार्य तुलसी ने इस ज्वलन्त समस्या पर न केवल चिन्तन किया, अपितु प्रेक्षा-ध्यान की प्रक्रिया बताकर एक सुनहरे जीवन की आस जगाई। वे जानते थे कि अवसाद, उत्तेजना, तनाव में कभी महान बनने की क्रिया निष्पत्तिदायक नहीं होती। प्रेक्षाध्यान भविष्य की आकांक्षाओं, चिन्ताओं और तनाव से परे वर्तमान में जीने की प्रेरणा देता है।
आचार्य तुलसी की इस 28वीं पुण्यतिथि पर अपने सम्पूर्ण भावों को प्रस्तुत कर रहें हैं-
सधे सुरों में तान हैं तुलसी, मरे मुर्दों में जान है तुलसी।
शहर चन्देरी की ही नहीं, अहले हिंदू की शान है तुलसी।।